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आपराधिक कानून

सबूत प्रस्तुत करने के लिये प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं

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 11-Jun-2025

सैयद मुइज़ कादरी और अन्य। बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश 

"जब अभियुक्त का कृत्य साधारण अपवादों के दायरे में आता है, तो उसके मामले को ऐसे अपवादों के दायरे में लाने के लिये अभियुक्त द्वारा सबूत प्रस्तुत करने की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" 

न्यायमूर्तिसंजय धर 

स्रोत: जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

  • जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय नेसैयद मुइज़ कादरी एवं अन्य बनाम जम्मू-कश्मीर संघ राज्य क्षेत्र केमामले में निर्णय दिया कि एक बार एक बार जब परिवाद में आरोपों से यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट हो जाता है कि अभियुक्त का कृत्य साधारण अपवादों के दायरे में आता है, तो ऐसे अपवादों के दायरे में अपना मामला लाने के लिये अभियुक्त द्वारा सबूत प्रस्तुत करने की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

सैयद मुइज़ कादरी एवं अन्य बनाम जम्मू एवं कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

पृष्ठभूमि: 

  • प्रतिवादी संख्या 3, तासपोरा गडूल, तहसील कोकेरनाग, जिला अनंतनाग में "दारुल आरिफा हजरत खदीजातुल कुबरा (RA)" नामक एक न्यास (ट्रस्ट) चला रहा था। 
  • यह ट्रस्ट गरीब अनाथ लड़कियों को छात्रावास और भोजनालय की सुविधा के साथ धार्मिक/तकनीकी शिक्षा प्रदान कर रहा था। 
  • न्यास का निर्माण मालिकाना भूमि और समीपवर्ती राज्य भूमि पर किया गया था। 
  • 70,000 रुपए का संदाय करने के पश्चात्, निकटवर्ती राज्य भूमि को जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि (कब्जाधारियों को स्वामित्व का अंतरण) अधिनियम (रोशनी अधिनियम) के अधीन न्यास के नाम पर दर्ज कर दिया गया। 

विधिक विकास: 

  • रोशनी अधिनियम (ROSHNI Act) को बाद में निरस्त कर दिया गया/असांविधानिक घोषित कर दिया गया। 
  • एस.के. भल्ला बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य और अन्य (PIL No. 119/2011) में उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने राज्य भूमि पुनर्प्राप्ति के संबंध में निदेश पारित किये 
  • राजस्व अधिकारियों ने निरस्तीकरण के पश्चात् न्यास की संपत्ति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।  

प्रशासनिक कार्रवाई: 

  • याचिकाकर्त्ता संख्या 1 (तहसीलदार, कोकरनाग) ने प्रतिवादी संख्या 3 को दिनांक 09.03.2022 को बेदखली नोटिस जारी कर अतिक्रमण हटाने को कहा। 
  • 11 मार्च 2022 कोराजस्व अधिकारियों ने राज्य की भूमि को पुनः प्राप्त करने और अतिक्रमण हटाने के लिये मौके का दौरा किया। 
  • न्यास के प्रबंधन ने बेदखली के प्रयासों का विरोध किया। 
  • 11 मार्च 2022 को एक और नोटिसजारी कर सरकारी कर्त्तव्यों में बाधा डालने के लिये स्पष्टीकरण मांगा गया। 
  • लगातार बाधा के कारण, 25 मार्च 2022 को एक और बेदखली नोटिस जारी किया गया जिसमें खाली करने के लिये सात दिन का समय दिया गया। 

परिवाद दर्ज करना: 

  • प्रतिवादी संख्या 3 ने प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, वैलू के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन आवेदन दायर किया। 
  • परिवाद में अभिकथित किया गया कि 11 मार्च 2022 को सुबह 10:00 बजे याचिकाकर्त्ताओं ने बिना किसी पूर्व सूचना या वैध अधिकार के न्यास परिसर में बलपूर्वक प्रवेश किया। 
  • आरोप यह भी लगाए गए कि याचिकाकर्त्ताओं ने अनाथ बालिकाओं के प्रति उत्पीड़नात्मक व्यवहार किया, उन्हें रसोईघर/भोजन कक्ष/डाइनिंग हॉल से बलपूर्वक बाहर निकाला, उक्त सुविधाओं को बंद कर दिया, तथा बालिकाओं का शील भंग किया 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने कथित तौर पर छात्रों और कर्मचारियों को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी।  
  • परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि घटना की सूचना मिलने पर पुलिस अधिकारियों ने कोई कार्रवाई नहीं की। 

मजिस्ट्रेट का आदेश: 

  • 25 मार्च 2022 कोप्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट वैलू ने पुलिस स्टेशन कोकरनाग के प्रभारी अधिकारी को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने का निदेश दिया।  
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 447, 354 और 506 के अधीन अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 55/2022 दर्ज की गई थी।  

उच्च न्यायालय में चुनौती: 

  • याचिकाकर्त्ताओं ने मजिस्ट्रेट के 25 मार्च 2022 के आदेश और परिणामी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 55/2022 दोनों को चुनौती दी 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि वे न्यायालय के निदेशों के अनुसार कार्य कर रहे थे और आधिकारिक कर्त्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे। 
  • यह मामला आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय तक पहुँचा 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं पर: 

  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम यू.पी. (2015)में उच्चतम न्यायालय नेधारा 156(3) के अधिकारिता को लागू करने से पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154(1) और 154(3) के पालन पर बल दिया। 
  • धारा 156(3) के अधीन आवेदन शपथपत्रों द्वारा समर्थित होना चाहिये और धारा 154(1) और 154(3) के अधीन आवेदन से पूर्व स्पष्ट रूप से इंगित करना चाहिये 
  • मजिस्ट्रेटों को उचित मामलों में अभिकथनों की सत्यता और सच्चाई की पुष्टि करनी चाहिये 
  • धारा 156(3) के अंतर्गत आवेदन प्रस्तुत करने से पूर्व, परिवादकर्त्ता का यह अनिवार्य दायित्त्व है कि वह सर्वप्रथम संबंधित थाना प्रभारी (SHO) अथवा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) के समक्ष अनुरोध/प्रार्थना प्रस्तुत करे। 

वर्तमान मामले के अनुपालन पर: 

  • परिवादकर्त्ता ने अपने परिवाद में अस्पष्ट रूप से कहा है कि पुलिस से संपर्क किया गया, किंतु कोई कार्रवाई नहीं की गई। 
  • परिवाद मेंकिसी विनिर्दिष्ट तारीख या पुलिस प्राधिकारी का उल्लेख नहीं किया गया है। 
  • पुलिस स्टेशन या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) को परिवाद प्रेषित किये जाने संबंध में कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं दिया गया। 
  • सहायक शपथपत्र में धारा 154(1) और 154(3) की आवश्यकताओं के अनुपालन का उल्लेख भी नहीं किया गया।  
  • परिवादकर्त्ता अनिवार्य प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन करने में असफल रहा। 

विधिक पूर्वनिर्णयों पर: 

  • बाबू वेंकटेश बनाम कर्नाटक राज्य (2022)में उच्चतम न्यायालय नेनिर्णय दिया कि धारा 156(3) याचिका दायर करने से पहले धारा 154(1) और 154(3) के अधीन पूर्व आवेदन अनिवार्य है। 
  • रंजीत सिंह बाथ बनाम केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ (2025)में हाल ही में उच्चतम न्यायालय के निर्णय नेइस बात को पुष्ट किया कि मजिस्ट्रेट धारा 154(1) और 154(3) का पालन किये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने का निदेश नहीं दे सकते।  

साधारण अपवादों पर: 

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 78 मेंउपबंध है कि न्यायालय के निर्णय/आदेश के अनुसरण में किये गए कार्य अपराध नहीं हैं। 
  • याचिकाकर्त्ता एस.के. भल्ला मामले में डिवीजन बेंच के निदेशों के अनुसार कार्य कर रहे थे। 
  • परिवादकर्त्ता के अभिकथनों से भी यह स्पष्ट था कि याचिकाकर्त्ता न्यायालय के निदेशों के अधीन काम कर रहे थे। 
  • जब तथ्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि मामला सामान्य अपवाद के अंतर्गत आता है, तो अभियुक्त के बचाव की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अभिकथनों की प्रकृति पर: 

  • शील भंग करने और गाली-गलौज करने के अभिकथन अस्पष्ट और सर्वव्यापी थे। 
  • पीड़ितों या विनिर्दिष्ट कृत्यों के बारे मेंकोई विनिर्दिष्ट विवरण नहीं दिया गया। 
  • ऐसे अस्पष्ट अभिकथन अभियोजन का आधार नहीं बन सकते। 

प्रक्रिया के दुरुपयोग पर: 

  • न्यायालय ने पाया कि परिवादकर्त्ता ने अधिकारियों को उनके वैध कर्त्तव्यों के निर्वहन में बाधा डालने के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी। 
  • ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) प्रतिशोध लेने तथा राज्य की भूमि से बेदखली का विरोध करने के लिये दर्ज की गई थी।  
  • कार्यवाही जारी रहने से लोक अधिकारी वैध कर्त्तव्यों के निर्वहन से हतोत्साहित होंगे। 
  • मामला विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग का था जिसके लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन हस्तक्षेप की आवश्यकता थी। 

अंतिम निर्धारण: 

  • प्रक्रियागत अनुपालन के अभाव में मजिस्ट्रेट का 25 मार्च 2022 का आदेश विधि की दृष्टि में टिकाऊ नहीं है। 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 55/2022 भी विधिक रूप से अस्थिर घोषित की गई।  
  • न्यायालय ने प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और न्याय के लक्ष्यों को सुरक्षित करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन निहित शक्तियों का प्रयोग किया 
  • मजिस्ट्रेट के आदेश और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) तथा उसके आधार पर की गई सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया गया। 

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 78 क्या है 

भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत साधारण अपवादों का परिचय: 

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में यह माना गया है कि कुछ कार्य, जो अन्यथा अपराध माने जा सकते हैं, विनिर्दिष्ट परिस्थितियों में उचित ठहराए जा सकते हैं या क्षमा किये जा सकते हैं। 
  • भारतीय दण्ड संहिता का अध्याय 4 (धारा 76-106) "साधारण अपवादों" से संबंधित है - ये उपबंध प्रतिरक्षा के रूप में कार्य करते हैं जो किसी व्यक्ति को आपराधिक दायित्त्व से मुक्त कर सकते हैं, भले ही उनके कार्य तकनीकी रूप से अपराध की परिभाषा के अंतर्गत आते हों। 

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 78: 

"न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य" 

  • कोई बात, जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाए या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत्त रहते की जाए, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परंतु यह तब जब कि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी 

धारा 78 के मुख्य तत्त्व: 

निर्णय/आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य: 

  • यह कार्य न्यायालय के निर्णय या आदेश का अनुपालन करने या उसे निष्पादित करने के लिये किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय के निदेश और अभियुक्त की कार्रवाई के बीच सीधा कारण-कार्य संबंध होना चाहिये 

न्यायालय: 

  • यह आवश्यक है कि संबंधित न्यायालय विधिपूर्वक गठित हो तथा उसमें न्यायिक अधिकार निहित हों 
  • इसमें मजिस्ट्रेट न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक सभी न्यायायल सम्मिलित हैं। 
  • ऐसे प्रशासनिक अधिकरण जो न्यायिक कार्यों का निष्पादन करते हैं, वे भी इस श्रेणी में सम्मिलित किये जा सकते हैं।  

निर्णय/आदेश से आबद्ध व्यक्ति 

  • कार्य करने वाले व्यक्ति का न्यायालय के निदेश का पालन करना विधिक दायित्त्व होना चाहिये 
  • इसमें सामान्यत: न्यायालय अधिकारी, पुलिस कर्मी, बेलिफ और अन्य प्रवर्तन अधिकारी सम्मिलित होते हैं। 
  • न्यायालय द्वारा विशेषत: निदेशित व्यक्तियों पर भी लागू हो सकता है। 

निर्णय/आदेश द्वारा अनुमत  

  • कार्य न्यायालय के निदेश द्वारा प्रदत्त दायरे और प्राधिकार के अंतर्गत आना चाहिये 
  • न्यायालय द्वारा अधिकृत सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। 

विस्तार और अनुप्रयोग: 

न्यायालय की अधिकारिता की परवाह किये बिना संरक्षण: 

यह धारा एक महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण उपबंधित करती है: "यदि ऐसा किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो ऐसा करने के लिये ऐसे निर्णय या आदेश द्वारा आबद्ध है" - यह संरक्षण तब भी विद्यमान है जब न्यायालय के पास निर्णय या आदेश पारित करने की अधिकारिता न हो। यह सुनिश्चित करता है कि: 

  • न्यायालय के आदेशों को क्रियान्वित करने वाले अधिकारियों को आपराधिक दायित्त्व से संरक्षण प्राप्त है। 
  • न्यायिक निदेशों का सद्भावपूर्वक अनुपालन करने को प्रोत्साहित किया जाता है। 
  • अधिकारिता संबंधी विवाद्यकों को चुनौती देने का दायित्त्व प्रभावित पक्षकारों पर है, न कि कार्यान्वयन अधिकारियों पर। 

व्यावहारिक अनुप्रयोग: 

  • सिविल आदेशिका का निष्पादन: 
    • न्यायालय अधिकारियों द्वारा संपत्ति की कुर्की और विक्रय 
    • बेदखली की कार्यवाही बेलिफ द्वारा की जाती है। 
    • न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवरों के माध्यम से ऋण की वसूली। 
  • आपराधिक आदेशिका का निष्पादन: 
    • न्यायालय के वारण्ट के अनुसरण में की गईं गिरफ्तारियाँ 
    • न्यायालय के आदेश के अधीन की गई तलाशी। 
    • न्यायालय के निदेशानुसार संपत्ति जब्त करना।  

अवमानना ​​कार्यवाही : 

  • न्यायालय के आदेशों को लागू करने के लिये की गई कार्रवाई। 
  • न्यायालय की अवमानना ​​के लिये व्यक्तियों को निरोध में रखना 

परिसीमाएँ और अपवाद: 

सद्भावनापूर्ण आवश्यकता: 

  • यह कार्य न्यायालय के आदेश के अनुसरण में सद्भावनापूर्वक किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय के निदेश के परे विद्वेषपूर्ण या अत्यधिक कार्यों को संरक्षण नहीं दिया जाता। 

विस्तार की परिसीमा: 

  • संरक्षण केवल उन कार्यों तक ही सीमित है जो न्यायालय के आदेश द्वारा विशेषत: अनुमत हों। 
  • न्यायालय के प्राधिकरण से परे कार्यवाही को उचित नहीं ठहराया जा सकता। 

उचित न्यायालय की आवश्यकता: 

  • न्यायिक प्राधिकार के साथ एक वैध न्यायालय होना चाहिये 
  • ऐसे प्रशासनिक निकाय जिनके पास न्यायिक अधिकार का अभाव हो, उनके आदेश इस संरक्षण के अंतर्गत नहीं आते। 

न्यायिक निर्वचन: 

न्यायालयों ने लगातार यह माना है कि: 

  • उदार निर्वचन: न्यायालय के आदेशों को क्रियान्वित करने वाले अधिकारियों को संरक्षण के लिये धारा 78 का उदारतापूर्वक निर्वचन किया जाना चाहिये।  
  • सद्भावना मानक: जब तक अधिकारी सद्भावपूर्वक कार्य करता है, तब तक निष्पादन में छोटी-मोटी त्रुटियों को क्षमा किया जा सकता है।  
  • सबूत का भार: एक बार यह स्थापित हो जाने पर कि कोई कार्य न्यायालय के आदेश के अनुसरण में किया गया था, तो द्वेष या अधिकार के अतिरेक को साबित करने का भार उस पर आ जाता है। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 में तदनुरूप उपबंध 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 16  

"न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य" 

कोई बात, जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाए या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत्त रहते की जाए, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परंतु यह तब जब कि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी।